– सुदेश आर्या
कुंभ, कुंभ और कुंभ। देश-विदेश में जिस कुंभ की धूम थी, वो केवल तीन चेहरों तक ही सिमट कर रह गया। मीडिया ने मात्र तीन चेहरों पर ही सारा कुंभ खत्म कर दिया। एक तन की खूबसूरती, दूसरी आंखों की खूबसूरती और एक उच्च शिक्षित व्यक्ति का बाबा बनना।
क्या यही है कुंभ की महत्ता?
यदि कुंभ में आप यही खोज पाए तो फिर आपको अपने इंसान होने पर दोबारा विचार करना चाहिए।
एक अध्यात्म के इतने बड़े समंदर से हमने चुना भी तो क्या! जो चीज़ हम हर चौराहे पर खोज सकते थे उसको खोजने के लिए हमने कुंभ को चुना!
12 साल के इस अवसर को हमने यूं ही व्यर्थ गवां दिया। माना कि मीडिया का दोष है, लेकिन हम सबका भी उतने ही दोषी हैं। मीडिया ने हर जगह थूका फ़जीहत करा दी।
हरेक साधु महात्मा चिमटा, डंडा, त्रिशूल, झाड़ू उठाए भौं भौं मीडिया के पीछे मारता, पीटता, कूटता, भागता नज़र आया। दो टके के रील्स बाजों और यूट्यूबरों ने बाक़ी पूरी मीडिया की फ़जीहत करा दी।
आज तक इतने कुंभ देखे, मगर ऐसा शर्मनाक नज़ारा कभी देखने को न मिला। विदेशी पर्यटक भी कुंभ की छवि अपने दिलों में बसाकर ले गए। क्योंकि बारह साल बाद आने वाले हर जगह लगने वाले कुंभ का जो नज़ारा हर व्यक्ति के दिलो दिमाग़ में बसा है, कुछ शोहदों के कारण उसकी छवि धूमिल अवश्य हुई है।